काशी: अनंत नगरी की छोटी सी एक गाथा
सप्तपुरी में से एक,शिव की काशी वरुणा व अस्सी नदी के बीच में स्थित-इसलिए वाराणसी नगर कोतवाल श्री भैरव से रक्षित माँ अन्नपूर्णा के आशीर्वाद से फलित-काशी

पुराणों के अनुसार पहले यह भगवान विष्णु की पुरी थी।जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदु सरोवर बन गया।प्रभु यहां 'बिंधुमाधव' के नाम से प्रतिष्ठित हुए। महादेव ने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य निवास के लिए मांग लिया।तब से काशी शिव का निवास स्थान बन गई।


मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अनेकानेक बार काशी के मंदिरों का विद्ध्वंस किया। 1194 में मुहम्मद गौरी ने, 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा और सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना द्वारा काशी के 63 मंदिर तोड़ दिए गए।

18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया व यहाँ ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। सन् 1752 -1780 के बीच दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 1777-80 में महारानी अहिल्याबाई ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।


अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।


कहते हैं कि काशी नगरी भगवान शिव के त्रिशुल की नोक पर बसी है। यह शहर सप्तमोक्षदायिनी नगरी में से एक है।यहाँ देहावसान पर स्वयं महादेव मुक्तिदायक तारक मंत्र का उपदेश करते हैं। इसीलिए अधिकतर लोग यहां काशी में अपने जीवन का अंतिम वक्त बिताने आते हैं और मरने तक यहीं रहते हैं।

काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग दो भागों में है। दाहिने भाग में शक्ति के रूप में मां भगवती विराजमान हैं व दूसरी ओर भगवान शिव। ऐसा इसीलिए क्योंकि काशी को मुक्ति क्षेत्र कहा जाता है। यहां मनुष्य को मुक्ति मिलती है और दोबारा गर्भधारण नहीं करना होता है।

बाबा के दरबार में तंत्र की दृष्टि से चार द्वार हैं :- शांति द्वार, कला द्वार, प्रतिष्ठा द्वार, निवृत्ति द्वार।संसार में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां शिवशक्ति एक साथ विराजमान हों और तंत्र द्वार भी हो। ज्योतिर्लिंग ईशान कोण में है जिस का अर्थ है, संपूर्ण विद्या व कला से परिपूर्ण।

बाबा विश्वनाथ काशी में गुरु और राजा के रूप में विराजमान है। वह दिनभर गुरु रूप में काशी में भ्रमण करते हैं। रात्रि नौ बजे जब बाबा का श्रृंगार आरती किया जाता है तो वह राज वेश में होते हैं। इसीलिए शिव को राजराजेश्वर भी कहते हैं।

विश्वनाथ मंदिर से कुछ ही दूर माता अन्नपूर्णा का मंदिर है। इन्हें तीनों लोकों में खाद्यान्न की माता मानते हैं।कहते है कि माता ने स्वयं भगवान शिव को खाना खिलाया था।यहाँ साल में केवल एक बार अन्नकूट पर मां अन्नपूर्णा की स्वर्ण प्रतिमा को दर्शनार्थ निकाला जाता है।

अन्नपूर्णा मंदिर में ही आदि शंकराचार्य ने अन्नपूर्णा स्त्रोत् की रचना कर के ज्ञान वैराग्य प्राप्ति की कामना की थी। एक श्लोक है - अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राण बल्लभे, ज्ञान वैराग्य सिद्धर्थं भिक्षां देहि च पार्वती। इस में भगवान शिव माता से भिक्षा की याचना कर रहे हैं।

काल भैरव को काशी का कोतवाल कहा जाता है। मान्यता है कि इस शहर में भैरव बाबा ही पूरे शहर की व्यवस्था देखते हैं। शिव पुराण में कहा गया है कि कालभैरव परमात्मा शंकर के ही रूप हैं इनका दर्शन किये बग़ैर विश्वनाथ का दर्शन अधूरा रहता है।
















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